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छत्तीसगढ़ के पहले आदिवासी क्रांति कारी

स्टोरी स्रोत बाय गूगल

शहीद वीर नारायण सिंह बिंझावार-

वीर नारायण सिंहनारायण सिंह का जन्म सन् 1795 में रायपुर जिले के बलौदाबाजार तहसील के सोनाखान नामक स्थान में हुआ। उनके पिता रामसाय एक स्वाभिमानी पुरुष थे जिन्होंने सन् 1818-19 के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध तलवार उठाई परन्तु कैप्टन मैक्सन ने विद्रोह को दबा दिया। बिंझवार आदिवासियों के सामथ्र्य और संगठन शक्ति से जमींदार रामसाय का दबदबा बना रहा और अंग्रेजों ने उनसे संधि कर ली। पिता की मृत्यु के बाद 1830 में वह जमींदार बने । सन् 1854 में अंग्रेजी राज्य में विलय का विरोध करने के बाद रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट के टकराव बढ़ गया।

सन् 1856 ई. में छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जब भयंकर अकाल पड़ा, नारायण सिंह को यह देखकर बहुत ही अजीब लगा कि व्यापारियों ने अनाज दबाकर रख लिया था। उन्हें बहुत ही दुख हुआ कि लोग भूखों मर रहे हैं मगर व्यापारी सिर्फ पैसों के बारे में सोच रहे थे। तब नारायण सिंह ने एक व्यापारी माखन के गोदाम का सारा अनाज किसानों को बांट दिया। अपनी इस कार्य की सूचना नारायण सिंह ने अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर को भी दे दी। अंग्रेजी सत्ता तो नारायण सिंह के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिये बहाना ढूंढ़ ही रही थी।

*लगा डकैती का आरोप*
जैसे ही व्यापारी ने शिकायत की, उनकी रिपोर्ट के आधार पर नारायण सिंह को 24 अक्टूबर 1856 ई. को स बलपुर में गिरफ्तार कर रायपुर जेल में डाल दिया गया। अंग्रेजी सत्ता ने वीर नारायण सिंह पर लूटपाट और डकैती का आरोप लगाया। अकालग्रस्त किसानों के बारे में सोचने वाला नारायण सिंह को जेल की कोठरी में बंद कर दिया गया और शोषक व्यापारियों को संरक्षण दिया गया।  सन् 1857 ई. की बात है, नारायण सिंह, जिन्हें लोग वीर नारायण सिंह के नाम से जानने लगे थे। रायपुर जेल में सजा काट रहे थे। सारे देश में अंग्रेजी सत्ता के विरोध में विद्रोह की भावना भड़क रही थी। मई 1857 में मेरठ में मंगल पांडे ने विद्रोह किया। अंग्रेजी फौज के हिन्दू और मुसलमान सैनिकों में विद्रोह की अग्नि धधक उठी थी। रायपुर के सैनिक मौका ढूंढ रहे थे और जब लोगों ने जेल में बन्द वीर नारायण सिंह को अपना नेता चुना तो सैनिकों ने उनकी हर संभव सहायता की। इसी तरह सैनिकों और जनता की सहायता से वीर नारायण सिंह 28 अगस्त सन् 1857 ई. को जेल से भाग निकले। उस वक्त वह बलपुर के क्रान्तिकारी सुरेन्द्र साय हजारीबाग जेल में थे। सुरेन्द्र साय 30 जुलाई 1857 को जेल से भाग निकले थे और उनके भाग निकलने के महज 28 दिनों बाद नारायण सिंह भी रायपुर जेल से भाग निकले। वीर नारायण सिंह रायपुर जेल से भागकर सोनाखान पहुंचे। सोनाखान की जनता वीर नारायण सिंह को देखकर खुशी से झूम उठी। जनता का मनोबल लौट आया। जनता अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति पाने के लिये कुछ भी करने को तैयार थी।

बनाई 500 सैनिकों की टुकड़ी
महज मजबूत संगठन और कुशल नेतृत्व की जरुरत थी। नारायण सिंह के नेतृत्व में तुरन्त 500 सैनिकों की एक सेना बनाई गयी। यह खबर जब रायपुर के डिप्टी कमिश्नर स्मिथ के पास पहुंची तो डर के मारे उसकी हालत खराब हो गई। उसने वीर नारायण सिंह के खिलाफ सैनिक कार्रवाई करने की तैयारी आरंभ कर दी। लगभग 21 दिन इस तैयारी में लग गये। 20  नव बर 1857 ई. को सुबह अंग्रेजों की सेना सोनाखान के लिये चल पड़ी। यह सेना पहले खरोद पहुंची, खरोद जहां पुलिस थाना था। डिप्टी कमिशनर स्मिथ इतना डर गया था कि वहां पहुंचते ही कटंगी, भटगांव, बिलाईगड़ और देवरी के जमींदारों को उसने सहायता के लिये बुला भेजा। 26 नवंबर को स्मिथ को नारायण सिंह का एक पत्र मिला जिसे उसने पास बैठे एक जमींदार से पढ़वाया। पढ़ते ही स्मिथ गुस्से से आग-बबूला हो उठा। 28 नवंबर तक स्मिथ तैयारी करता रहा। 29 नव बर सुबह होते ही स्मिथ की फौज सोनाखान के लिए रवाना हो गई। स्मिथ इतना डरा हुआ था कि उसने रायपुर से जो सैनिक बुलवाये वे केवल अंग्रेज धुड़सवार थे। बिलासपुर से भी जो सैनिक बुलवाये गये थे, उनकी संख्या थी 50 और वे भी अंग्रेज ही थे।

10 दिसंबर को दी फांसी

उनकी सेना में जो 80 बेलदार थे सिर्फ  वे ही भारतवासी थे। इतना ही नहीं जैसे ही उन्हें पता चला कि उनका लक्ष्य सोनाखान पर आक्रमण करना है, उनमें से 30 बेलदारों ने सोनाखान जाने से मना कर दिया।  युद्ध के दौरान खूब गोलियां चली किन्तु थोड़ी ही देर में नारायण सिंह की सेना की गोलियां खत्म हो गयी। अंत में, वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें रायपुर जेल में डाल दिया गया। नारायण सिंह पर सत्ता के विरुद्ध द्रोह का मुकदमा चलाया गया और अंग्रेज न्यायधीश ने आपको मृत्युदंड की सजा सुनाई। 10 दिसंबर 1857 को उनको रायपुर नगर के बीच स्थित चौक में फांसी की सजा देकर, प्राणदंड दिया गया। तब से ही छत्तीसगढ की जनता ने इस अमर शहीद की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए इस चौक का नाम जयस्तंभ चौक रख दिया।



पोस्टल स्टाम्प

देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के शासन काल में
शहीद वीर नारायण सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिए उनकी 130वीं बरसी पर 1987 में सरकार ने 60 पैसे का स्टाम्प जारी किया, जिसमें वीर नारायण सिंह को तोप के आगे बंधा दिखाया गया।

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